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बेटियां माँ के गर्भ मे सुरक्षित नहीं है, महिलाये घर और बाहर सुरक्षित नहीं है, लड़कियों के मन मे हमेशा असुरक्षा की भावना रहती है , हमारे घर परिवार मे बच्चे लड़कियाँ सुरक्षित नहीं है चाहे कोई अपना करीबी उसके साथ शोषण करे या बाहर का मगर बच्चे भी सुरक्षित नहीं है ये किस तरह के समाज का निर्माण हो गया जिसमे हम रह रहे है जिस समाज में हम रह रहे है उस समाज को विकसित/ विकासशील समाज कहेंगे पर क्या सच में हम एक विकसित समाज का हिस्सा है क्या सच में विकसित मानसिकता वाले लोग रह रहे है ???क्या ऐसे ही समाज को विकसित कहते है जहाँ लड़कियां कहीं भी सुरक्षित नहीं स्कूल, कॉलेज, रास्तों में ऑफिस में, सिनेमाहाल में ट्रेन, बस टेम्पो ओटो कहीं भी तो सुरक्षा की गारंटी नहीं देता ये समाज लड़कियों को | फिर कैसे कहें की हम विकसित समाज में रहते है |
दिनोदिन बढती जा रही बलात्कार की घटनाएं अब उन घटनाओ ने एक विकृत सा रूप इख्तियार कर लिया है बलात्कार के बाद दरिंदगी की सारी सीमाए पार कर उन्हें मार देना वो भी अमानवीयता के साथ | बलात्कार की घटना चाहे दिल्ली में घटित हो या किसी छोटे से गाँव में दहशत में हर एक वो इन्सान आ जाता है जो किसी बहन का भाई है किसी का पति हो किसी का पिता हो या पूरा नारी समाज क्यों की ये एक घटना नहीं ये संख्या है जो दिनोदिन बढती जा रही है | आज किसी के साथ हुआ है कल वो ….. किसी के साथ भी तो हो सकता है न वो कल
रोज के अख़बार में ये ही सब है, रोज के समाचार चैनल्स में यही सब है | गाँव कस्बे शहर कहीं कोई जगह सुरक्षित नहीं लड़कियों के लिए इतना कुछ देखने सुनने में आ रहा है फिर भी हम चुप शांत है | कहते है जब पडोसी के घर में आग लगी हो तो अपने घर तक लपटें पहुँचने में देरी नहीं लगती मगर हैरानी की बात है रोज कोई बलात्कार की खरब हम तक पहुँच रही है फिर भी हम सब शांत है हमारे अंदर का विद्रोह क्यों दिन-ब-दिन कम होता जा रहा है ?? क्यों सहने की आदत सी पड़ गयी है हम में ?? क्यों आँखे खुली होते हुए भी हम चिर निंद्रा की सी कैफियत में जी रहे है ?? क्या होता जा रहा है हमारे समाज को ??? क्यों बेटियां लड़कियां या कहूँ नारी जाति पर इस तरह की हैवानियत हो रही है ?? क्यों अत्याचार बढ़ते जा रहे है ??
कन्याओं को, लड़कियों को, नारियों को देवी रूप में देखने पूजने वाला समाज कब ऐसे समाज में तब्दील हो गया जहाँ रोज उसके साथ हैवानियत का खेल हो रहा है
मैं सभी पुरुष वर्ग को कटघरे में नहीं खडा कर रही हूँ मगर ये जो एक तबके का पुरुष है जो गाहे बगाहे अपना पौरुष लड़कियों पर दिखाने लगा है उस तबके के पुरुष हमारे समाज में कहाँ से आ गए है जो लड़कियों को चौक चौराहों में घर में पड़ोस में कहीं भी नग्न कर देता है अपनी हैवानी नजरो से अपनी पाशविक हरकतों से गंदे इशारो अश्लील फब्तियों से
रेप बलात्कार ये शब्द आज किसी बच्चे से भी पूछो तो वो भी जनता है इनका क्या अर्थ है …. लड़कियां क्यों हमारे समाज में भोग की वस्तु बन गयी है | दिल्ली रेप केस जिसे कई नाम दिए गए दामिनी के नाम से कई योजनाये शुरू करी गयी जब दिल्ली रेप केस हुआ था तो दिल्ली ही नहीं पूरा भारत जाग गया था बेहोशी तोड़ी थी हर हाथ ने केंडल लेकर मार्च किया था हर कोई चाहता था दरिन्दे बलात्कारियों को फांसी की सजा दी जाए | तवरित कार्यवाही हो पर हमारा कानून वो अपने नियमो से चलता है वो ये नहीं जनता की एक लड़की के साथ बलात्कार सिर्फ एक बार नहीं होता है वो एक लड़की के साथ नहीं होता है उसके साथ उसके शारीर के साथ उसकी आत्मा भी इस दंश को पल पल झेलती है | एक पूरा परिवार उसके अरमान सपने सबके साथ ही तो बलात्कार होता है … क्या आप को लगता है वो लड़की वो परिवार इस सदमे से उभर पाता होगा वो वहशी छुवन क्या वो लड़की भुला पाती होगी …. हर एक नजर में वो खुद के लिए बलात्कार होने का अंश देखती होगी |
दामिनी ने जगा दिया था पर हम फिर से सो गए है हम डरते तो है ये घटना हमारे साथ हमारे अपनों के साथ न हो जाए पर हम चुप रहते है कुछ कहते नहीं ये मौन ये ख़ामोशी को तोड़ने का वक़्त है एक आवाज बनने का वक़्त है जिसमे गूंज हो तो सिर्फ इस बात की “नहीं स्वीकार हमें हमारे समाज में ऐसे दरिन्दे जो बहन बेटी माँ की इज्जत नहीं करना जानते है” जिनकी सोच हरकते जानवरों से भी बत्तर हो गयी है | उन्हें जीने का अधिकार नहीं फांसी की सजा भी मिले तो त्वरित कार्यवाही के साथ | मानवाधिकार और कानून की नजर में एक बार सुधरने का जीने का हक मिलता है हर अपराधिक को मेरा ये सवाल उन जैसी सोच वालो से ही है की जब लड़की के साथ हैवानियत होती है उसके प्राइवेट पार्ट को क्षत-विक्षप्त कर दिया जाता है, बलात्कार के बाद उन्हें पेड़ पर लटका दिया जाता है या किसी चौराहे खेत खलिहान पर अधमरा छोड़ दिया जाता है मरने के लिए क्या ऐसे वहशियों को समाज में जीने का अधिकार है क्या उनको एक और मौका मिलना चाहिए ??क्या यही सब आप के परिवार के साथ हो तो भी ये ही सोच होगी की जीने का मौका मिले दरिंदो को
हमेशा माँ बाप इस डर में जीते है की कहीं उनकी बेटी की तरफ कोई गलत नजर न उठे, कोई हादसा ऐसा न हो की बेटियां के होठो से मुस्कराहट छीन जाए या कुछ ऐसा की कल उनके जीने की आरजू ही न ख़त्म हो जाए इस डर के साए में आज हर माँ बाप है इस डर से बेहतर है हमें उस डर को खत्म कर दें जो हमें सोते जागते हर समय परेशां कर रहा है | हाथो में केंडल ले कर निकलने से कुछ नहीं होगा ,घर चौराहों, ऑफिस की बहस में भी इसका हल नहीं निकलने वाला अपनी सोई आत्मा को, डर को दिल से निकालना होगा, जगाना होगा |
चुभने लगता है ये आक्रोश जब हम बहुत जोश के साथ निकलते है और फिर वो आवाज कब ख़ामोशी इख़्तियार कर लेती है क्यों चुप्पी साध लेते है कुछ दिनों के बाद क्या कर लोगे चौक चौराहे में जाके मोमबत्ती जला के या एक पीडिता के लिए संवेदना स्वरूप मौन प्रदर्शन करके क्यूँ नहीं प्रतिकार करते हो जब कोई मनचला छेड़ता है लड़की को क्यूँ नहीं आवाज बुलंद करते हो? जब घर में ही निकलता है घृणित मानसिकता का कोई तो क्यूँ हो जाते हो खामोश? क्यूँ ये ख़ामोशी किस लिए? ये उदासीनता अब तोड़नी होगी इसे एक आग एक आक्रोश धधकती रहनी चाहिए तब तक जब तक की खत्म न हो जाए समाज से पाशविक, विकृति मनोवृति वाले वहशी लोग
लड़कियों तुम कमजोर नहीं हो तुम्हरी आत्मा को कोई छलनी कर रहा है तुम मार दो, बन जाओ अब रणचंडी दुर्गा जिसके सामने दैत्य भी हारे है …
लड़ना होगा आप ही, और लड़ेगा कौन
शस्त्र उठाओ नारियों, तोड़ो अब तो मौन
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